“महिलाएं पर्वतीय विकास का केन्द्र बिन्दु हैं : डाॅ0 विनीता पाण्डे”

पहाड़ की जिन्दगी भी पहाड़ की तरह ही दुरूह है। यहाॅं जिन्दगी हर पल एक चुनौती है। मौसम की अनिश्चितताएं जहाॅं जीवन को दुष्कर बनाती हैं, वहीं रोजगार का अभाव पुरुषों को पलायन के लिए विवश कर देता है।

यहाॅं की जनसंख्या में लगभग 70 प्रतिशत राजपूत तथा 20 प्रतिशत ब्राह्मण हैं। राजपूत वर्ग में अधिसंख्य युवा सैन्य सेवाओं के प्रति आकृष्ट होते हैं तथा ब्राह्मण अध्यापन के प्रति। सभी को रोजगार के लिए अपने घर को छोड़ना पड़ता है। ढालदार सीढीनुमा खेतों में इतनी उपज नहीं होती कि सारे परिवार का जीवन निर्वाह हो सके। मैदानी क्षेत्रों से पकड़कर पहाड़ों में छोड़े गये बन्दरों के उत्पाद तथा जंगली सुअरों ने फलों तथा सब्जियों की खेती को भी बर्बाद कर दिया है। पुरुष कार्यशील जनसंख्या के अभाव में बच्चों तथा बुजुर्गों के पालन के दायित्व के साथ धनोपार्जन में पुरुषों को सहयोग देने में भी महिलाएं अपना दायित्व निष्ठा से निभा रही हैं।

परिवार के पालन के अतिरिक्त पहाड़ की महिला का दूसरा मोर्चा पर्यावरण है। यह उत्तरदायित्व उसने स्वयं ही ओढ़ लिया है। प्रकृति के प्रति प्रेम की पराकाष्ठा पहली बार चिपको आन्दोलन में दिखाई दी जब गौरा देवी के नेतृत्व में ग्रामीणों ने पेड़ों को काटे जाने का विरोध किया और पेड़ों को काटने के लिये आतुर कुल्हाड़ियों के सामने पेड़ों से चिपककर उन्हें बचा लिया था। चिपको आन्दोलन के दौरान गाये जाने वाले इस प्रसिद्ध गीत में उनका प्रकृति प्रेम उजागर होता है-

‘माटू हमरू, पाणी हमरू, हमरा ही छन यो बौण भी, पितरों न लगाई बौण………… हमुन ही त बचैण भी।’ (हमारी मिट्टी, हमारा पानी तथा वन भी हमारे ही हैं, हमारे पूर्वजों ने इन्हें लगाया है…………… हमने ही तो इन्हें बचाना भी है।)

उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन तथा शराब विरोधी आन्दोलन में भी अग्रणी भूमिका का निर्वाह करते हुए पहाड़ की महिलाओं ने अपना सामाजिक उत्तरदायित्व बखूबी निभाया है। देखा जाय तो पर्वतीय जीवन के सभी क्षेत्र महिलाओं के सहयोग की कहानी कहते हैं। इन सबके अतिरिक्त पहाड़ की आर्थिकी में भी महिलाओ का प्रभाव दिखाई देता है।

पहाड़ी क्षेत्रों में उपलब्ध संसाधनों से कृषि उपज प्राप्त करना, दुधारु पशुओं की देखभाल तथा उनके लिए चारे की व्यवस्था आदि महिलाएं ही करती हैं। इस क्षेत्र में एक कदम बढाते हुए अब महिलाओं ने दूध के विपणन में भी कदम बढ़ाया है। सहकारिता विभाग के सहयोग से उत्तराखण्ड की महिलाएं अब महिला डेयरी परियोजना को सफल बना रही हैं। इस योजना के अन्तर्गत महिलाएं अपने दुधारु पशुओं से प्राप्त दूध को डेयरी को बेच देती हैं। डेयरी उक्त दूध की जाॅच करके उसकी गुणवत्ता के आधार पर मूल्य निर्धारित करती है। न तो दूध बेचने के लिए गाॅव से बाहर जाना पड़ता है और न ही उसका मूल्य वसूलने में कोई मेहनत करती पड़ती है। डेयरी का संचालन भी महिलाओं के द्वारा किया जाता है तथा संचालन करने वाली महिला को मानदेय भी मिलता है। इस प्रकार महिलाएं अब उद्यमिता की दिशा में भी आगे आ रही हैं।

डेयरी उद्योग एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें अपार संभावनाएं हैं। इसके उत्पाद की स्थानीय माॅग होती है तथा अतिरिक्त उत्पादन को सहकारी डेयरी को भेजकर मूल्य व बोनस कमाया जा सकता है। पर्वतीय क्षेत्रों में महिला डेयरी की कुछ समस्याएं हैं। जैसे- दूरस्थ क्षेत्रों में दुग्ध मार्ग न होना, चारे का अभाव, जागरूकता का अभाव, पशु चिकित्सकों का अभाव आदि। यदि इन समस्याओं को दूर कर दिया जाये तो पहाड़ में रोजगार का अच्छा विकल्प मिल सकता है। जैसे जैसे महिला डेयरी योजना का विकास होगा और वहाॅं की महिलाओं की आय में वृद्धि होगी, उनके घर के पुरुष सदस्य मैदान से पहाड़ की ओर लौटने लगेंगे। इससे पहाडी क्षेत्रों में रोजमर्रा के सामान की माॅग बढेगी, व्यापार का विकास होगा तथा खुशहाली लौटने लगेगी। इसप्रकार, एक बार फिर महिलाएं पहाड़ के विकास का केन्द्र बिन्दु बन रही हैं।

लेखिका- डाॅ0 विनीता पाण्डे सहायक प्रोफेसर (अर्थशास्त्र) गुरु नानक डिग्री कालेज, रुद्रपुर (ऊधम सिंह नगर) उत्तराखण्ड।

डिस्क्लेमर: लेख के कॉपीराइट लेखिका डॉ0 विनीता पांडेय के है और उनकी सहमति के पश्चात लेख यहां प्रेषित किया गया है।

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